Wednesday 2 October 2013

माँ

माँ
प्रकृति पुरुष मिल सृष्टि रचाएँ
चिर  सत्य यही .

सूक्ष्म बीज को
रक्त कोशिका
प्राण सींच के
प्रतिलिपि अपनी
रूप अनोखा
सिरजे नारी
माँ  रूप लही..

मधुर पयस से
क्षुधा मिटाती
लोरी धुन से
सदा सजाती
स्वर्णिम भविष्य
 सोनल सपनों
की नींव यही...

कोमल ममता
स्नेहिल आँचल
अविरल क्षमता
ध्येय अविचल
विस्तृत नभ सी
सहनशीलता
 में  तुल्य मही ..

सब ईशों में
सर्वोपरि है
तीन लोक में
माँ सम दूजा
दुर्लभ, मिलता
चरणों में ही
 जो स्वर्ग  कहीं  ....

Friday 2 August 2013

वर्षा

   वर्षा
 नभ आच्छादित
 लौह पिंजरों सी  कैद को
गरज- गरज टकरा के
मेघों के अंतर जगाती
स्वाधीनता के  स्वर
दामिनी मशाल ले
राहें खोजती
आजाद हुई जब वर्षा रानी
बूँदों की पायल पहने
झूमती नाचती
पवन संग लहराती
चहुँ ओर फैला  आँचल 
उतरती  धरा पर
मिलती गले
सब प्राणियों से
घर आँगन, गाँव शहर
पेड़ पल्लव, उपवन -जंगल
फूल क्यारियाँ ,काँटे ,
शुष्क  ठूँठ .
नदी तलैया सागर
प्यास से सूखी दरकती
धरा पर प्यार से
समभाव से
बाँटे सरसता..
धरा आत्मसात कर
फैला देती सुगंध स्नेह की
मिल  दोनों जुट जाती
शस्य  श्यामला हो
धरा देती अन्न
तृषा बुझाती वर्षा
सृष्टि रहे अमर
जीवित रहे मानवता ..

Wednesday 3 July 2013

पीर पहाड़ की

पीर  पहाड़ की

पीर  किसे बताऊँ
नदिया पेड़ पत्थर
साथी सदा मेरे  
लोग भी आस पास
पूजते जो   हर सुबह
 चढ़े उतरे बोझ ले
लकड़ी घास पानी
जितनी चाह  जिसकी
हँसी ख़ुशी  संग  मिल
चहकती चिड़िया भी
रहे इक दूजे लिए
बात  किसे सुनाऊँ  ?

फिर  जाने क्या हुआ
विकास का नाम पे
हुआ छल  छलनी बना
वन कटे  बने बाँध
रोके  बहती नदी
व्यापार जल शक्ति का
जंगलों के काठ का
नगर सेठों ने मुझे
बना आराम गाह
लूटा पत्थरो को
नदी तट तोड़  चले 11
टीस  कैसे भुलाऊँ ?

सहता रहा पहाड़
दर्द के पहाड़ को
देख बिलखी  रो पड़ी
नदी उफन कर 
बही 
फटा दिल मेघ का भी
बह चले साथ सभी
राहगीरों को लिए
पैर टिकते कहाँ पे
दलदल था लोभ का
नीति के  प्रपंच का
क्यों क्या कैसे हुआ
किसे अब  समझाऊँ ?

राजनीति की गलियाँ
भटकी चेतावनी
अनसुनी दुहाइयाँ
तर्क का विषय बना
 होती आपत्तियाँ
काश ! अब  चेत जाते
अस्तित्व दोनों का
ज़रूरी   साथ जीलें
पाषाण  दिलों  में
मानवता का अलख
किस  तरह जगाऊँ ?