Monday 2 July 2012

      हरेला
           उत्तराखंड में  विविध त्योहार मनाये जाते हैं .हर दिन की कुछ न कुछ  विशेषता मानी जाती है.यहाँ सौर मास और चन्द्र मास दोनों के ही अंतर्गत कई त्योहार होते हैं .कुछ लोग पूर्णिमा से पूर्णिमा तक महीने की गणना करते हैं तो कुछ संक्रांति से संक्रांति तक .पारिवारिक ,धार्मिक ,सामाजिक उत्सवों और पर्वों से भरा पूरा है यहाँ के लोगों का जीवन .कुछ त्योहार ऋतु परिवर्तन के सूचक हैं तो कुछ कृषि  आधारित .जब फसले बोई या काटी जाती हैं .कुछ त्यौहार यहाँ विशेष तौर पर मनाये जाते हैं जो अन्यत्र नहीं मनाये जाते .ऐसे ही एक अति महत्त्वपूर्ण त्यौहार है .हरेला ,हर्याल या हरयाव.
                     
वस्तुतः  यह   वर्षा ऋतु का स्वागत करने वाला त्योहार है .

                         यह श्रावण संक्रांति अर्थात  कर्क संक्रांति  को मनाया जाता है.अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह सोलह जुलाई को होता है .यदा कदा ग्रहों की गणना से एक दिन का अंतर हो जाता है .इससे १० दिन पूर्व  लोग घरों में पूजा स्थान में किसी जगह या छोटी डलियों में मिट्टी बिछा कर   सात प्रकार के बीज जैसे ...गेंहूं  ,जौ ,मूंग ,उरद ,भुट्टा .गहत, सरसों आदि बोते हैं और नौ दिनों तक उसमें जल आदि डालते हैं .बीज अंकुरित हो बढ़ने लगते हैं .हर दिन सांकेतिक रूप से इनकी गुड़ाई भी की जाती है  दसवें दिन कटाई .यह सब घर के बड़े बुज़ुर्ग या पंडित करते हैं .पूजा नैवेद्य आरती का विधान भी होता है कई तरह के पकवान बनते हैं .इन हरे-पीले रंग के  तिनकों को देवताओं को अर्पित करने के बाद घर के सभी लोगों के सर पर या कान के ऊपर रखा जाता है घर के  दरवाजों के दोनों ओर या ऊपर  भी गोबर से इन तिनकों को सजाया जाता है  .कुँवारी  बेटियां बड़े लोगो को पिठ्या अक्षत से टीका करती हैं .और भेंट स्वरुप कुछ रूपये पाती हैं .बड़े लोग अपने से छोटे लोगों को इस प्रकार आशीर्वाद देते हैं ....

 जी रया जागि रया
आकाश जस उच्च .धरती जस चाकव है जया
स्यावै   क जस  बुद्धि  ,सूरज जस तराण है जौ
सिल पिसी  भात  खाया जाँठि टेकि भैर जया .
दूब जस फैलि जया...
                              अर्थात दीर्घायु .,बुद्धिमान और शक्तिमान होने का आशीर्वाद और शुभकामना दी  जाती है .
    इस त्योहार कि एक अन्य विशेषता  यह है कि पूजा के लिए घरों की महिलाएं या कन्यायें  मिट्टी की  मूर्तियाँ बनाती हैं जिन्हें` डिकार या डिकारे ` कहा जाता है .लाल या चिकनी मिट्टी से ये मूर्तियाँ बनाई जाती हैं .इसमें शिव ,पार्वती,उनके पुत्र  यानी शिव परिवार के सदस्य और उनके वाहन भी शामिल होते हैं .माना यह भी जाता  है कि इसी माह में शिव पार्वती का विवाह हुआ.दूसरा कारण यह भी है कि पारिवारिक सुख शांति त्रि देवों में शिव शंकर के पास ही है और उनकी कृपा से सभी की मनोकामना पूरी होती है .
                  डिकारे बनाने के लिए पहले मिट्टी को साफ कर उसे गूंध लिया जाता है फिर सभी की सुन्दर मूर्तियाँ बना कर सुखाया जाता है .फिर बिस्वार (चावल पीस कर बनाये गए  घोल )से रँगने  के बाद मनचाहे सुन्दर रंगों से उनके वस्त्र आभूषण बना दिए जाते हैं .हरेले की डलियों में उन्हें स्थापित कर पूजन होता है .पूजा के बाद विसर्जन किया जाता है .इस तरह  त्योहारों में महिलाओं और लड़कियों को अपनी कलाओं का प्रदर्शन करने का अवसर भी मिलता है .
                                                                तीज त्योहार  यों तो आपसी मेल मिलाप ,हंसी ख़ुशी से मनाये ही जाते हैं और लोगों को इसीलिए इनकी प्रतीक्षा भी रहती है लेकिन हरेले के त्योहार को मनाने का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष भी है .यह हमारे कृषि आधारित  प्रदेश की उस सोच को उजागर करता है जब वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं नहीं होती थी और उपजाऊ बीज परीक्षण की सुविधा भी  उपलब्ध नहीं होती थी .तब फसलों की बुआई से पहले हर घर में विविध बीज बो कर  परीक्षा हो जाती कि फसल कैसी होगी ?फसल अच्छी हो इस लिए पहले मनोकामना की  पूर्ति के लिए  पूजा-पाठ आदि. से कार्य का आरम्भ होता था .सब लोगों में मिलजुल कर काम करने कि प्रवृति होती थी .अच्छे बीजों ,उपकरणों. ,हल- बैलों का  मिलकर उपयोग करते थे .अभी भी उत्तराखंड के गावों में सब मिलकर बारी बारी से  सब के खेतों में बुआई ,रोपाई ,गुड़ाई कटाई आदि कार्य संपन्न होते हैं.
                                                        हरेले के दिन पंडित भी अपने यजमानों के घरों में पूजा आदि करते हैं .और सभी लोगो के सर पर हरेले के तिनकों को  रख आशीर्वाद देते हैं . लोग परिवार के उन लोगों को जो दूर गए हैं या रोज़गार के कारण दूरस्थ हो गए हैं उन्हें भी पत्रद्वारा हरेले का आशीष भेजते हैं . हरेले के बाद एक के बाद एक त्योहारों की लड़ी सी लग जाती है .
                                आजकल समय का अभाव,विचारों का बदलाव ,शहरीकरण और पलायन की मार ...इन त्योहारों को भी विलुप्ति के कगार पर पहुँचा रही हैं.हमें अपनी उन परम्पराओं को नहीं भूलना  चाहिए जो हमारे  सामाजिक ,धार्मिक , आर्थिक और वैज्ञानिक आधार को मज़बूत बनाती हैं..
                            हरेले की शुभ कामनाओं सहित
.
                      

Monday 11 June 2012

गर्मी के दिन

गर्मी के दिन -1

ओह! गर्मी  के दिन जब आए
सूरज अनोखा रूप  दिखाए .

सूरज तेज़ प्रतापी पिता सा
बच्चों पर गुस्सा ,गरमाता
 सहम कर डरे से  सब भागते 
ढूंढते छाया माँ का आँचल
लुकते  छिपते झाँकते साए
ओह! गर्मी .....

लू की छड़ी गरम हवा थपेड़े
चिलचिलाती   सबको खदेड़े
क्रोध अगन में सूखे सुखाए
करे पसीना दिल नहीं   पसीजे 
उपाय   हो क्या समझ न आए
ओह! गर्मी ........

धरा बिटिया  सिहरती  अंजलि ले
घट वाष्प से  पिता शांत हो लें
प्रेमाभिभूत  उच्छ्वास लिए 
रचे  मेघ स्नेह बौछार दिए
सभी  ताप भूल जग हरषाए

ओह !गर्मी ...


गर्मी के दिन -2

गर्मी तुम आई

तन मन दहके
श्वेद नद बहते
गर्म धौंकनी सी
लू की ये आहें 
अगन लपट लाई
गर्मी ....
तरु तपस्वी  खड़े
स्थिर अविचल  मौन
अवनत मुखी  पत्ते
कातर  हुई   पौन
कैसी रुत आई ?
गर्मी ....
चोंच खोल चिरई
तड़प  रज नहाती
बच्चे  नज़रबंद
गलियाँ अलसाती
 चैन साँझ लाई .
गर्मी ..

Monday 14 May 2012

नारी-जीवन

  नारी-जीवन

नदी की तरह
तटों में बंधी
 जीवन बीते
उमंग हिलोरें
भाव विह्वल
बिखरी जाती
दूर दूर तक
पर मन भारी
सिमटी  जाती
फिर बंधन में
पिंजरे में क़ैद
पाखी की तरह .
सब से प्यार
आदर सभी  का
स्व नहीं कहीं  
कभी रोष पीड़ा
तोडना चाहे सीमा
प्लावित कर डुबाना
घर बार सारा .
फिर स्वतः  स्रोत. ममता
फिर उमड़ता
आँचल  समेटे
फिर जुट जाती
शांत व्यस्त
गृहस्थी  निभाने
अनुबंधित सदा
नारी नदी की तरह ....

Thursday 12 April 2012

taanka

कुछ `तांका`

एक सूराख
कमज़ोर दीवार
संदेह छोटा
छीजते स्नेह रिश्ते
ढहते घर -द्वार .

लम्बी सड़कें
गाँव शहर मिलें
निष्ठुर लगे
कष्ट  झेले तन पै
लक्ष्य मिले राही को .

गेंद का खेल
सब मनभावन
उसकी पीड़ा
जानें वृद्धजन ही
संतति  बाँटें पारी .

कोमल जिह्वा
करे रसास्वादन
मधुर बोल
प्यार रस घोलती
देती अपनापन .

Wednesday 28 March 2012

sapne harsingaar

  सपने हरसिंगार
 
नींद -बगिया खिलें
रुपहले सुनहले
चुपचाप आ मिलें
सजे  नवल  सिंगार
सपने हरसिंगार

रात शिउली सजे
सपने  नैन बसें
भोर आहट झरें
जुड़ें न फिर डार
सपने हरसिंगार

रंग भरी दुनियाँ
पल दो पल खुशियाँ
देते बार बार 
सुवासित मन- द्वार
सपने हरसिंगार

Thursday 15 March 2012

उत्तराखंड के लोक पर्व


फूल देई (देली पूजा)
हमारे देश में ऋतु-परिवर्तन के आधार पर कई त्योहार माने जाते हैं. ठिठुराती सर्दी की विदाई के साथ जब वसंत ऋतु आती है तो स्वयं प्रकृति  ही नईरूप सज्जा से सुशोभित होकर मन में ऐसी उमंग जगाती है कि लोगों का मन नाचने-गाने को करता है .शिव रात्रि.बसंत पंचमी फिर होली .होली तो मस्ती ख़ुशी और रंगों से भरपूर होती है .उसके बाद चैत्रमास आरम्भ होते ही कई उत्सव मनाए जाते हैं .

                                 उत्तराखंड में सौर और चन्द्र पंचांग के आधार पर कई विशेष  त्योहार मनाए जाते हैं जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलते .
चैत्र मास की पहले तिथि(चैत्रीय संक्रांति )को `फूल देई `मानी जाती है .इस दिन हर घर की छोटी-छोटी कन्याएँ  सज धज कर पूजा की थाली में चावल ,प्युली,बुरांश ,गेंदे के फूल ,पत्तियाँ ,.नारियल, गुड  आदि सामग्री सजाकर आपने घर की देहरी की पूजा करती हैं फिर आस-पास के सारे घरों में जाकर देहरी(देली)की पूजा करती हैं .चावल और फूल सजाती हुई अपनी सुमधुर आवाज़ में  ये आशीर्वचन गाती हैं.......
              फूल देई छम्मा देई
              देनी द्वार भर भकार
              तेरी देई नमस्कार ..
       जिसमें घर की देहरी से विनम्र प्रार्थना की जाती है कि इस घर के भंडार सदा भरे रहे .देहरी सबके लिए शुभकारी हो उसको सदा नमन.हर घर कि महिलाएँ अपनी सामर्थ्य के अनुसार उनको गुड,चावल और रूपये -पैसे भेंट देती हैं. कन्याएँ सभी घरों में जाती हैं कोई घर छोड़ा नहीं जाता.यह समाज के हर  घर की खुश हाली  की कामना से जुड़ा हुआ है.बाद में हर घर से एकत्रित  चावलों से एक विशिष्ट व्यंजन बनाया जाता है जिसे सै या सैह  कहा जाता है. पहले चावलों को धो कर .,भिगो कर फिर छाँव में सुखाकर  पीसा जाता है फिर दही में थोड़ी देर भिगो कर घी में भून कर गुड मिला  कर पकाया जाता  है .जो हलवे की भांति स्वादिष्ट होता है इसे भी आस-पड़ोस में बाँट कर ही खाया जाता है
                                इस त्योहार की विशेषता है कि एक तो ये वसंत के आगमन की खुशियों  का द्योतक है .दूसरा ..यह एक बाल-पर्व है.जिसमें कन्याएँ भाग लेती हैं .तीसरा ..समाज और आस-पास के लोगो के लिए कल्याण की कामनाओं से युक्त है .और सब से महत्वपूर्ण है .....उस घर के मुख्य द्वार का पूजन  जो घर हमें हर तरह का सुख ,आश्रय और सुरक्षा देता है .घर से प्रिय और कौन सा स्थान है ?और वहाँ  आने- जाने के लिए हम हमेशा ही देहरी लाँघते रहते हैं .
                                          गाँवों और छोटे कस्बों की यह परम्परा बड़े शहरों के लोगो के लिए कितनी  विस्मय कारी है ?जहाँ हमारे पडोसी भी अजनबी से लगते हैं और दरवाजों पर कितने ताले -चिटकनी लगी होती हैं.कोई अपना भी  आये  तो सूक्ष्म -छिद्र से तसल्ली  करने के बाद  ही दरवाज़ा खुलता है .ऐसे में ये त्योहार यादों में रच- बस जाते हैं .
              
 भिटौली (भेटुण )

 
चैत्र मास आरंभ होते ही उत्तराखंड के लोग एक पर्व मनाते हैं .इए भिटौली ,भिटोई या भेंटण कहते हैं .चैत्र नए वर्ष का प्रथम माह है इसलिए लड़कियों विशेष तौर पर विवाहित लड़कियों के लिए बहुत महत्त्व रखता है.लड़की का भाई  उपहार लेकर उसके ससुराल  उसे मिलने जाता है .उनको इस महीने मायके बुलाया जाता है.यह एक पारिवारिक पर्व है अर्थात अपनी सुविधा के अनुसार किसी भी दिन मनाया जा सकता है..इस दिन बनाए जाने वाले मुख्य व्यंजन पूरी ,पुए ,और सिंगल होते हैं. सै या सैह(चावल के आटे को दही में भिगो कर ,घी में गुड़ के साथ पका कर हलवे की तरह का अति स्वादिष्ट व्यंजन) इस दिन का विशिष्ट पकवान  होता है.लड़की के ससुराल को भी भाई अन्य कपड़े द्रव्य आदि के साथ यही ले जाता है .विवाहित कन्याओं को इस भेंट का बेसब्री से इंतज़ार रहता है .ससुराल में ये वस्तुएँ  आसपड़ोस में बाँटी जाती हैं. मायके आने पर भी लड़कियों को यही व्यंजन खिलाए जाते अविवाहित कन्याओं को भी भेंट में कपड़े और धन आदि दिया जाता है.पास पड़ोस के सभी घरों और रिश्तदारो की कन्याओं को भी यथा सामर्थ्य भेंट और पकवान भेजे जाते हैं या उन्हें आमंत्रित किया जाता है.
                          विवाह के समय भी कन्या की विदाई के अवसर पर भिटौली  दी जाती है.पहली भिटौली होली के अवसर पर दी जाती है बाद में चैत्र माह में ही दिए जाने की प्रथा है.इस पर्व का इतना महत्त्व है की उत्तराखण्ड के लोक -गीत,संगीत और लोक कथाओं में बहुधा वर्णन किया गया है लड़कियों को इस महीने की प्रतीक्षा रहती है उन्हें मायके जाने का अवसर मिलता है.आजकल मनी आर्डर द्वारा धन राशि भेज कर इस प्रथा का निर्वाह किया जाता है.

Monday 20 February 2012

sookhi nadi

सूखी नदी
(नदी माँ )
ये जो दिख रही है
नदी सूखती हुई
जर्जरित होती
उबड़ खाबड़
झुर्राई ,पथराई सी
लुप्त धारा...
आभास दिलाती
अपने चौड़े पाटों से
बहती थी बड़ी नदी यहाँ ..
हाँ मै थी जीवन भरी .
मेरा  बचपन
बीता ,चंचल निर्झरिणी बन
यौवन अल्हड
प्रौढ़ा धीरा  गंभीर .
संततियों को
सींचा कोख से
गोद में ले
उर लगाकर
मधुर कल ध्वनि
लोरी सुना ,कर
सर्वस्व निछावर

किया पालन .
हुए बड़े वे 
चले राहअपनी
ले अलग थलग .
 ऊर्जा गई  मेरी
स्रोत  कमज़ोर
थकी हारी सी
बहती  सहती .
मुड़ के देखते
स्नेह भर अपनत्व से
फिर छलकती मै
भावना उर्मिल
भिगोती सींचती
सिक्ता कणों को
शुष्क होती नहीं
पर तुमने..
प्यास अपनी बुझाई
दुःख दर्द धोए
कलुष सौंपे मुझे
खुद बने निर्मल
सभ्य सुघड़
बना मुझे मंद मलिन .
कह मुझे शक्ति हीना .
व्यर्थ वृद्धा विरल .
कंकड़ रोड़े भरी
पथरीली  चुभती ,
राह रोकती
अडचनों सी 
लगती तुम्हें
क्योकि ...
मेरा सारा स्नेह प्यार
खपा सींचते पोषते
 अब ..                                                                                            

अश्रु  जल सूखे  सभी
आँखों में बस  किरकिरी
 कोई आये भूले से
सुध बुध लेने कभी .
रीती हुई क्यो ये नदी ?
क्यों रह गई सूखी नदी?